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केरैटोकॉनस के कारण, लक्षण और 10 उपचार

सामान्य कॉर्निया बनाम केराटोकोनस

केरैटोकॉनस आँखों की एक प्रगतिशील बीमारी है इसके कारण आँख की पारदर्शी अग्र सतह (कॉर्निया) पतली होती जाती है, और यह विरूपित होकर एक कोन जैसी आकृति ले लेती है।

केरैटोकॉनस के कारण दृष्टि विरूपित हो जाती है, जिसे चश्मे से ठीक नहीं किया जा सकता है।

केरैटोकॉनस के अधिकांश मामले किसी व्यक्ति की किशोरावस्था से लेकर 20 वर्ष के आसपास की आयु में सुस्पष्ट होते जाते हैं। यह एक आँख या दोनों आँखों को प्रभावित कर सकता है।

केरैटोकॉनस के संकेत और लक्षण

चूंकि कॉर्निया की आकृति अधिक अनियमित होती जाती है, इसके कारण धीरे-धीरे करके निकट दृष्टि-दोष और अनियमित एस्टिग्मेटिज़्म विकसित होने लगता है, जिसके चलते विरूपित एवं धुंधली दृष्टि की अतिरिक्त समस्या उत्पन्न होने लगती है।

आमतौर पर केरैटोकॉनस के साथ तेज चमक और अत्यधिक संवेदनशीलता है की समस्या भी होती है।

केरैटोकॉनस से पीड़ित व्यक्ति जब भी नेत्र-चिकित्सक के पास जाता है, तो प्रायः उसके चश्मे का नम्बर बढ़ने की समस्या पायी जाती है.

केरैटोकॉनस किस कारण से होता है?

नए शोध में ऐसा पाया गया है कि जब कॉर्निया के ऊतक के दुर्बल होने पर केरैटोकॉनस होता है, तो यह समस्या कॉर्निया के अंदर किण्वकों के असंतुलन के कारण हो सकती है। इस असंतुलन के कारण ऐसा होता है कि फ्री रैडिकल्स नामक यौगिकों से ऑक्सिडेटिव क्षति के प्रति कॉर्निया अधिक अतिसंवेदनशील हो जाती है, जिसके चलते यह दुर्बल हो जाती है और आगे की ओर उभर जाती है।

ऑक्सिडेटिव क्षति तथा कॉर्निया की दुर्बलता के लिए जिम्मेदार जोखिम कारकों में एक आनुवंशिक पूर्वानुकूलता शामिल होती है, शायद इसी कारण से एक ही परिवार के एक से अधिक सदस्यों को केरैटोकॉनस की समस्या होती है।

केरैटोकॉनस का सम्बन्ध इन बातों से भी है - सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणें, आँखों को बहुत अधिक रगड़ा जाना, कॉन्टैक्ट लेंस को सही से फिट ना किए जाने का इतिहास, तथा आँखों में लम्बे समय से चली आ रही जलन।

केरैटोकॉनस का उपचार

केरैटोकॉनस के सबसे मामूली रूप में छपी दिखेंगी अथवा सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस सहायता कर सकते हैं। परन्तु जब यह रोग बढ़ जाता है, तथा कॉर्निया बहुत पतली होकर उसकी आकृति काफी अधिक अनियमित हो जाती है, तो चश्मे तथा नियमित सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस डिजाइन से पर्याप्त दृष्टि सुधार नहीं मिल जाता है।

प्रगतिशील केरैटोकॉनस के उपचारों में ये शामिल हैं:

1. कॉर्नियल क्रॉसलिंकिंग

इस क्रियाविधि को कॉर्नियल कोलैजेन क्रॉस-लिंकिंग अथवा CXL भी कहा जाता है, जो कॉर्निया के ऊतकों को मजबूत बनाती है और केरैटोकॉनस में नेत्र की सतह को आगे और अधिक उभरने से रोकती है।

कॉर्नियल क्रॉसलिंकिंग की उदेश कॉर्नियल ऐंकर्स को बढ़ाकर और कॉर्निया की कोलेजन फाइबर्स को बाँदकर कॉर्निया को मज़बूत करना है

कॉर्नियल क्रॉसलिंकिंग के दो संस्करण हैं: एपीथीलियम-ऑफ तथा एपीथीलियम-ऑन।

एपीथीलियम-ऑफ क्रॉसलिंकिंग में कॉर्निया की बाहरी परत (जिसे एपीथीलियम कहा जाता है) हटायी जाती है ताकि राइबोफ्लैविन, एक प्रकार का विटामिन बी, को कॉर्निया में प्रवेश की अनुमति मिल सके, इसके बाद यह पराबैंगनी किरणों से सक्रियित होता है।

एपीथीलियम-ऑन पद्धति (जिसे ट्रांसएपीथीलियल क्रॉसलिंकिंग भी कहा जाता है) में उपचार के दौरान कॉर्नियल एपीथीलियम में कोई परिवर्तन नहीं किया जाता है। एपीथीलियम-ऑन पद्धति में राइबोफ्लैविन को कॉर्निया तक पहुंचाने के लिए और अधिक समय की आवश्यकता होती है, परन्तु इस तकनीकी के समर्थकों का कहना है कि इसके सम्भावित लाभों में ये बातें शामिल हैं - संक्रमण का कम जोखिम, कम असहजता तथा देखने की क्षमता में तीव्र रिकवरी।

कॉर्नियल क्रॉसलिंकिंग से केरैटोकॉनस रोगियों में कॉर्नियल प्रत्यारोपण की आवश्यकता काफी महत्वपूर्ण रूप से कम हो सकती है। इसके ऊपर यह भी अन्वेषण किया जा रहा है कि LASIK अथवा दृष्टि सुधार के पश्चात होने वाली समस्याओं के उपचार या रोकथाम के एक तरीके के रूप में इसका उपयोग किया जा सके।

कॉर्नियल क्रॉसलिंकिंग तथा इन्टैक्स इम्प्लांट्स के संयोजन के प्रयोग ने भी केरैटोकॉनस के उपचार में काफी संभावनापूर्ण परिणाम दर्शाए हैं। साथ ही कॉर्नियल क्रॉसलिंकिंग तथा एक टॉरिक फैकिक IOL के इम्प्लांट के संयोजन से भी प्रगतिशील मामूली से लेकर मध्यम केरैटोकॉनस का उपचार भी सुरक्षित तरीके से और सफलतापूर्वक किया गया है।

2. कस्टम सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस

हाल ही में कॉन्टैक्ट लेंस निर्माताओं ने मामूली से लेकर मध्यम केरैटोकॉनस को ठीक करने के लिए विशेष तौर पर डिजाइन किए गए कस्टम सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस पेश किए हैं।

ये लेंस व्यक्ति की केरैटोकॉनस-ग्रस्त (केरैटोकॉनिक) आँख के विस्तृत मापन के आधार पर ऑर्डर पर बनाए जाते हैं, तथा कुछ उपयोगकर्ताओं के लिए ये लेंस - गैस परमिएबल लेंस (GPs) अथवा हाइब्रिड लेंस - की तुलना में अधिक आरामदायक हो सकते हैं।

कस्टम सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस एक कस्टमाइज्ड फिट के लिए बहुत व्यापक फिटिंग मापदण्डों के अनुरूप उपलब्ध होते हैं, तथा नियमित सॉफ्ट लेंस की तुलना में इनका व्यास अधिक बड़ा होता है जिससे ये केरैटोकॉनस-ग्रस्त (केरैटोकॉनिक) आँख पर अधिक स्थिरता प्रदान करते हैं।

मामूली केरैटोकॉनस के सुधार हेतु टॉरिक सॉफ्ट कॉन्टैक्ट्स एवं रिजिड गैस परमिएबल लेंस के दृश्य प्रदर्शन के एक हाल के अध्ययन में यह पाया गया कि जहाँ GP लेंस ने लो-कंट्रास्ट स्थितियों में बेहतर दृश्य तीक्ष्णता प्रदान की, वहीं सॉफ्ट टॉरिक लेंस ने हाई-कंट्रास्ट तीक्ष्णता परीक्षण में भी उतना ही अच्छा प्रदर्शन किया।

3. गैस परमिएबल कॉन्टैक्ट लेंस

यदि चश्मे अथवा सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस केरैटोकॉनस को नियंत्रित नहीं कर सकते, तो फिर ऐसी स्थिति में गैस परमिएबल कॉन्टैक्ट लेंस वरीय उपचार होते हैं। इसमें दृष्टि सुधारने के लिए GP लेंस को कॉर्निया के ऊपर चढ़ाया जाता है, और उसकी अनियमित आकृति को एक स्मूद, यूनिफॉर्म रिफ्रैक्टिंग सतह से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है।

केरैटोकॉनस से पीड़ित आँख पर कॉन्टैक्ट लेंस लगाना प्रायः एक चुनौतीपूर्ण और समय लगने वाला काम होता है। हो सकता है कि आपको अपने नेत्र-चिकित्सक को कई बार जाने की आवश्यकता पड़े, ताकि वह उसे आपके प्रिस्क्रिप्शन और फिटिंग के अनुसार फाइन-ट्यून कर सकें, खासतौर पर यदि आपके केरैटोकॉनस में लगातार प्रगति हो रही है।

4. "पिगीबैकिंग" कॉन्टैक्ट लेंस

कोन-आकृति वाली कॉर्निया के ऊपर एक गैस परमिएबल कॉन्टैक्ट लेंस फिट किया जाना कभी-कभी केरैटोकॉनस से पीड़ित व्यक्ति के लिए असहज हो सकता है, ऐसे में कुछ नेत्र चिकित्सक एक ही आँख में दो भिन्न प्रकार के कॉन्टैक्स लेंस की "पिगीबैकिंग" का परामर्श देते हैं।

केरैटोकॉनस के लिए, इस पद्धति में पहले आँख के ऊपर एक सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस लगाया जाता है, जैसे कि सिलीकॉन या हाइड्रोजेल से बना हुआ, और फिर सॉफ्ट लेंस के ऊपर एक GP लेंस फिट किया जाता है। इस तरीके में उपयोगकर्ता काफी सहज महसूस करता है, क्योंकि कठोर GP लेंस के नीचे सॉफ्ट लेंस एक कुशनिंग पैड की भूमिका निभाते हैं।

आपके नेत्र-चिकित्सक "पिगीबैक" कॉन्टैक्ट लेंस की फिटिंग को निगरानी में रखेंगे, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि आपके नेत्र की सतह तक पर्याप्त ऑक्सीजन पहुंच सके, क्योंकि एक ही आँख में दो लेंस लगाए जाने पर यह एक समस्या हो सकती है। हालांकि, अधिकांश आधुनिक कॉन्टैक्ट लेंस — GP और सॉफ्ट दोनों — आमतौर पर ऑक्सीजन पहुंचने के लिए पर्याप्त स्थान होता है, ताकि "पिगीबैक" सुरक्षित तरीके से फिट हो सके।

5. हाइब्रिड कॉन्टैक्ट लेंस

हाइब्रिड कॉन्टैक्ट लेंस में एक भरपूर मात्रा में ऑक्सीजन पहुंचने वाले कठोर केन्द्र के साथ एक सॉफ्ट पेरीफेरल "स्कर्ट का संयोजन होता है।" इन लेंसों को विशेष रूप से केरैटोकॉनस के लिए डिजाइन किया जाता है, तथा लेंस का केन्द्रीय GP क्षेत्र - कोन-आकृति वाली कॉर्निया पर चढ़ाया जाता है, ताकि उपयोगकर्ता को अधिक आराम मिले।

हाइब्रिड कॉन्टैक्ट लेंस एक गैस परमिएबल कॉन्टैक्ट लेंस वाली तेज नजर प्रदान करते हैं, और उसके साथ ही साथ इन्हें लगाना आरामदायक होता है, इसके चलते ये सॉफ्ट लेंस से बेहतर माने जाते हैं। ये एक व्यापक मापदण्ड के अनुरूप उपलब्ध हैं, ताकि केरैटोकॉनस-ग्रस्त (केरैटोकॉनिक) आँख की अनियमित आकृति की जरूरत के अनुसार एक अच्छी फिटिंग प्रदान कर सकें।

6. स्क्लेरल एवं सेमी-स्क्लेरल लेंस

ये बड़े-व्यास वाले गैस परमिएबल कॉन्टैक्ट होते हैं — ये इतने पर्याप्त बड़े होते हैं कि लेंस का बाहरी भाग और किनारा आँख के "श्वेत भाग" (स्क्लेरा) पर टिक जाते हैं।  

स्क्लेरल लेंस श्वेत पटल (स्क्लेरा) के एक बड़े भाग को कवर करते हैं, जबकि सेमी-स्क्लेरल लेंस एक छोटे भाग को कवर करते हैं।

चूंकि स्क्लेरल एवं सेमी-स्क्लेरल लेंस के केन्द्र को अनियमित आकृति वाली कॉर्निया पर चढ़ाया जाता है, इसलिए इन लेंस के कारण आँख की कोन-आकृति वाली सतह पर कोई दबाव नहीं पड़ता है तथा इससे काफी आरामदायक फिटिंग मिलती है।

स्क्लेरल लेंस पारम्परिक गैस परमिएबल कॉन्टैक्ट लेंस की तुलना में अधिक स्थिर भी होते हैं, जो कि प्रत्येक ब्लिंक के साथ गति करते हैं क्योंकि ये कॉर्निया के केवल एक थोड़े से हिस्से को कवर करते हैं।

7. कृत्रिम (प्रॉस्थेटिक) लेंस

चूंकि केरैटोकॉनस-ग्रस्त (केरैटोकॉनिक) आँखों पर फिटिंग करना बहुत चुनौतीपूर्ण काम होता है, इसलिए गम्भीर रोग वाले मरीज़ों को प्रायः एक उन्नत स्क्लेरल लेंस डिजाइन की आवश्यकता होती है, जो एक कृत्रिम परत के रूप में दोहरा होता है।

इन कस्टम लेंसों को उन्नत इमेजिंग प्रौद्योगिकी से बनाया जाता है ताकि लेंस की पार्श्व सतह केरैटोकॉनस-ग्रस्त (केरैटोकॉनिक) आँख की अद्वितीय अनियमितताओं से मेल खा सके।

पार्श्व-सतह फिटिंग की परिशुद्ध प्रकृति के कारण उपकरण की अग्र सतह पर उच्च गुणवत्तापूर्ण और व्यक्ति विशेष की जरूरत के अनुसार बनाए गए ऑप्टिक्स स्थापित किए जा सकते हैं।

केरैटोकॉनस के लिए कस्टम कृत्रिम लेंसों की फिटिंग के लिए विशेष प्रौद्योगिकी और फिटिंग विशेषज्ञता की आवश्यकता हो सकती है, जो शायद कुछ क्षेत्रों में ना उपलब्ध हो।

8. इनटैक्स

इनटैक्स (एडीशन टेक्नोलॉजी) पारदर्शी, वृत्ताकार कॉर्नियल इंसर्ट होते हैं, जिन्हें सुस्पष्ट दृष्टि के लिए आँख की अग्र सतह को वापस सही आकार में लाने के लिए बाहरी कॉर्निया के अंदर शल्य चिकित्सा की सहायता से लगाया जाता है।

इनटैक्स की आवश्यकता उस स्थिति में हो सकती है, जब केरैटोकॉनस से पीड़ित व्यक्ति कॉन्टैक्ट लेंस अथवा चश्मों के उपयोग के बावजूद भी ठीक से देखने में सक्षम नहीं रह जाते हैं।

बहुत से अध्ययनों में पाया गया कि इनटैक्स एक केरैटोकॉनस-ग्रस्त (केरैटोकॉनिक) आँख की सर्वश्रेष्ठ चश्मा-सुधारित दृश्य तीक्ष्णता (BSCVA) को एक मानक नेत्र चार्ट पर औसतन दो पंक्ति तक सुधार सकते हैं.

इम्प्लांट्स का यह भी लाभ है, कि इसे हटाया या बदला जा सकता है। शल्य-चिकित्सीय क्रियाविधियों में केवल लगभग 10 मिनट लगते हैं।

9. टॉपोग्राफी-गाइडेड कंडक्टिव केरैटोप्लास्टी

टॉपोग्राफी-गाइडेड कंडक्टिव केरैटोप्लास्टी (CK) एक क्रियाविधि है, जिसमें आँख की अग्र सतह को सही आकार में वापस लाने के लिए कॉर्निया के बाहरी भाग में विशिष्ट बिंदुओं पर रेडियो तरंगों से ऊर्जा प्रदान करने के लिए एक हस्तधारित उपकरण का प्रयोग किया जाता है।

आँख की सतह का कम्प्यूटर इमेजिंग द्वारा निर्मित टॉपोग्राफिक "मैप" व्यक्ति विशेष की जरूरत के अनुसार उपचार योजना बनाने में सहायता करता है।

हालांकि यह दूसरे उपचार विकल्पों जितना लोकप्रिय नहीं है, लेकिन टॉपोग्राफी गाइडेड CK, केरैटोकॉनस से होने वाले अनियमित एस्टिग्मेटिज़्म को कम करने में सहायक हो सकता है।  

10. कॉर्नियल प्रत्यारोपण

उन्नत केरैटोकॉनस के कुछ मामलों में, कॉर्निया प्रत्यारोपण ही एकमात्र व्यवहार्य उपचार विकल्प होता है, इसे पेनेट्रेटिंग केरैटोप्लास्टी (PK या PKP) भी कहते हैं। कॉर्निया प्रत्यारोपण के बाद आपकी दृष्टि स्थिर होने में कई महीने तक का समय लग सकता है, तथा इसके बाद स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम होने के लिए सम्भवत: आपको चश्मे या कॉन्टैक्ट लेंस की आवश्यकता पड़ सकती है।

साथ ही, इसमें प्रत्यारोपण क्रियाविधि के बाद संक्रमण तथा ग्राफ्ट अस्वीकरण का जोखिम भी होता है।

इन कारणों तथा अन्य कारणों को ध्यान में रखते हुए कॉर्निया प्रत्यारोपण की अनुशंसा केवल तभी की जाती है जब कोई अन्य केरैटोकॉनस उपचार सफल नहीं होता है।

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